Dehradun – इन गुंजायमान नारों के साथ बलिदान दिवस पर भारतीय जन संघ के प्रणेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद किया जाता रहेगा । अविभाजित भारत की संकल्पना मन में लिए अपने जीवन का बलिदान कर देने वाली इस महान शख्सियत के सम्मान में भावभीनी श्रद्धांजलि । ‘‘श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि पर उन्हें याद कर रहा हूं. उनके महान आदर्श, समृद्ध विचार और लोगों की सेवा करने की प्रतिबद्धता हमें प्रेरित करती रहेगी. राष्ट्रीय एकता के उनके प्रयासों को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा.’’
भारत की भूमि वीर रत्नों की भूमि रही है, जिन्होंने देश ही नहीं, समाज के लिए भी अपना जीवन समर्पित कर दिया । ऐसे ही एक मातृभूमि भारत के व्यक्तित्व डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी हुए हैं, जिन्होंने देशभक्ति के साथ-साथ भारतीय राजनीति में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी को चढ़ाया गया था तथाकथित धर्मनिरेपक्षता की बलि , इन्हे मिली थी देशप्रेम की सज़ा और इनकी मृत्यु तक को बना दिया गया ऐसा रहस्य जिसे आज तक खोलने की किसी की भी हिम्मत नहीं हो पायी है । जी हाँ चर्चा चल रही है नकली धर्मनिरपेक्षता की आंधी और हिन्दू विरोध की सुनामी में अपने आप को स्वाहा कर के कश्मीर को बचा लेने वाले अमर बलिदानी श्यामा प्रसाद मुखर्जी की । आज भी जब जब और जहाँ जहाँ ये नारे गूँजते हैं की जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी वो कश्मीर हमारा है तो उस महान की याद आ जाती है जिसे पहले जेल और बाद में मृत्यु इसलिए दे डाली गयी क्योकि उन्होंने कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताते हुए वहां कूच कर देने का एलान कर दिया । आमतौर पर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को ‘एक देश में एक निशान, एक विधान और एक प्रधान’ के संकल्पों को पूरा करने के लिए कश्मीर में खुद का बलिदान देने के लिए याद किया जाता है। लेकिन डॉ. मुखर्जी का व्यक्तित्व इतने तक सीमित नहीं है, बल्कि स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान की ऐतिहासिक श्रृंखलाएं हैं।
आज जब हम ‘डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी नहीं होते तो क्या होता’ की कसौटी पर परखते हुए जब इतिहास के पन्नों पर जमी धूल हटाते हैं तो जो तथ्य उभरकर आते हैं, वो उनके महत्व को व्यापक अर्थों में स्थापित करते हैं।भारतीय इतिहास में उनकी छवि एक कर्मठ और जुझारू व्यक्तित्व वाले ऐसे इंसान की है, जो अपनी मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी अनेक भारतवासियों के आदर्श और पथप्रदर्शक हैं।
भारत माता के इस वीर पुत्र का जन्म 6 जुलाई 1901 को एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था. इनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी बंगाल में एक शिक्षाविद् और बुद्धिजीवी के रूप में प्रसिद्ध थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होने के पश्चात श्री मुखर्जी 1923 में सेनेट के सदस्य बने. अपने पिता की मृत्यु के पश्चात, 1924 में उन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में नामांकन कराया । 1926 में उन्होंने इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया जहाँ लिंकन्स इन से उन्होंने 1927 में बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की. 33 वर्ष की आयु में आप कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए और विश्व का सबसे युवा कुलपति होने का सम्मान प्राप्त किया. श्री मुखर्जी 1938 तक इस पद को शुशोभित करते रहे । सन् 1938 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से डी०लिट० की उपाधि से सम्मानित होकर उन्होंने अपनी प्रतिभा की धाक जमायी । वे रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल तथा कमेटी ऑफ इन्टैलेक्चुअल कोऑपरेशन तथा लीग ऑफ नेशन्स के प्रतिनिधि सदस्य भी रहे । अपने कार्यकाल में उन्होंने अनेक रचनात्मक सुधार किये तथा इस दौरान ‘कोर्ट एंड काउंसिल ऑफ़ इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस बैंगलोर’ तथा इंटर यूनिवर्सिटी बोर्ड के सक्रिय सदस्य भी रहे. श्यामाप्रसाद अपनी माता पिता को प्रतिदिन नियमित पूजा-पाठ करते देखते तो वे भी धार्मिक संस्कारों को ग्रहण करने लगे । वे पिताजी के साथ बैठकर उनकी बातें सुनते. माँ से धार्मिक एवं ऐतिहासिक कथाएँ सुनते-सुनते उन्हें अपने देश तथा संस्कृति की जानकारी होने लगी. वे माता-पिता की तरह प्रतिदिन माँ काली की मूर्ति के समक्ष बैठकर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते। परिवार में धार्मिक उत्सव व त्यौहार मनाया जाता तो उसमें पूरी रुचि के साथ भाग लेते. गंगा तट पर वे मंदिरों में होने वाले सत्संग समारोहों में वे भी भाग लेने जाते. आशुतोष मुखर्जी चाहते थे कि श्यामाप्रसाद को अच्छी से अच्छी शिक्षा दी जाए।
डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने सन् 1939 में सक्रिय राजनीति में प्रवेश लिया । वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी निर्वाचित हुए । वीर सावरकर की हिन्दू महासभा की विचारधारा से प्रभावित होकर इसकी सदस्यता भी ग्रहण की । वे हिन्दुओं की उपेक्षा तथा मुसलमानों की अत्यधिक सुरक्षा को लेकर चिन्तित रहा करते थे । उन्हें भय था कि उन्हीं नीतियों के फलस्वरूप एक दिन बंगाल को पाकिस्तान का रूप मिल जायेगा ।उन्होंने पश्चिम बंगाल को भारत से पृथक् न होने देने हेतु पटेल की तरह ही अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी । बंगाल विभाजन के दौरान हिंदू अस्मिता की रक्षा में भी डॉ. मुखर्जी का योगदान बेहद अहम माना जाता है। हिंदुओं की ताकत को एकजुट करके डॉ। मुखर्जी ने पूर्वी पाकिस्तान में बंगाल का पूरा हिस्सा जाने से रोक लिया था। अगर डॉ मुखर्जी नहीं होते तो आज पश्चिम बंगाल भी पूर्वी पाकिस्तान (उस दौरान का) का ही हिस्सा होता। लेकिन हिंदुओं के अधिकारों को लेकर वे अपनी मांग और आंदोलन पर अडिग रहे, लिहाजा बंगाल विभाजन संभव हो सका।
बंगाल में उनके नेतृत्व कौशल ने उन्हें राष्ट्रीय फलक पर ला दिया था। साल 1944 में डॉ. मुखर्जी हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और पूरे देश में हिंदुओं की सशक्त आवाज बनकर उभरे। डॉ. मुखर्जी को हिंदू महासभा का अध्यक्ष चुने जाने पर स्वयं महात्मा गांधी ने खुशी जाहिर करते हुए कहा था कि पंडित मालवीय के बाद हिंदुओं को एक सही नेता की जरूरत थी और डॉ. मुखर्जी के रूप में उन्हें एक मजबूत नेता मिला है।
साल 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने तो स्वयं महात्मा गांधी एवं सरदार पटेल ने डॉ. मुखर्जी को तत्कालीन मंत्रिपरिषद में शामिल करने की सिफारिश की और पंडित नेहरू को डॉ. मुखर्जी को मंत्रिमंडल में लेना पड़ा।स्वतन्त्रता के बाद वे नेहरू मन्त्रिमण्डल में वाणिज्य मन्त्री के पद पर रहे । उस पद पर रहते हुए उन्होंने चितरंजन रेलवे इंजन का कारखाना, सिंदरी बिहार की खाद फैक्ट्री, समुद्री जहाज निर्माण के कारखानों के निर्माण हेतु अपना अनथक श्रम व शक्ति लगा दी ।स्त्री शिक्षा, सैनिक शिक्षा, योग और आध्यात्म की शिक्षा, टीचर्स ट्रेनिंग हेतु उन्होंने पर्याप्त प्रयास किये “श्यामाप्रसाद मुखर्जी नेहरू की पहली सरकार में मंत्री थे. जब नेहरू-लियाक़त पैक्ट हुआ तो उन्होंने और बंगाल के एक और मंत्री ने इस्तीफ़ा दे दिया. डॉ. मुखर्जी देश के प्रथम उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री बने। लेकिन कुछ साल बाद उन्होंने इस पद से भी इस्तीफा दे दिया। दरअसल लियाकत-नेहरू पैक्ट को वे हिंदुओं के साथ छलावा मानते थे और इसी बात पर 8 अप्रैल 1950 को उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। आक्रोशित होकर मुखर्जी द्वारा दिये गये त्यागपत्र को नेहरूजी ने स्वीकार कर लिया ।
उन्होंने अपनी सभी सभाओं में यह निडरता के साथ कहा कि- ”नेहरूजी एक तिहाई कश्मीर पाकिस्तान को पहले ही भेंट कर चुके हैं । मैं एक इंच भारत की भूमि किसी दूसरे के हाथ नहीं जाने दूंगा ।” नेहरूजी के लियाकत अली पैक्ट का जब उन्होंने 1950 में विरोध किया था, जिसमें हिन्दुओं पर किये गये अत्याचार के प्रति गहरा आक्रोश छिपा था, उन पर इस हेतु साम्प्रदायिक होने का इल्जाम मढ़ दिया गया । जवाहर लाल नेहरू की नीतियों के विरोध में एक वैकल्पिक राजनीति की इच्छा डॉ। मुखर्जी के मन में हिलोरे मारने लगी थी। गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध की वजह से देश का एक तबका यह मानने लगा था कि देश की राजनीति में कांग्रेस का विकल्प होना भी जरूरी 28 अप्रैल 1951 को भारतीय जनसंघ का गठन करते हुए उन्होंने यह कहा कि- ”स्वतन्त्रता और एकता के स्थायित्व के लिए तथा जन्मभूमि की रक्षा के लिए, राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावना के मूल उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए भारतीय जनसंघ का गठन किया जा रहा है । यह दल किसी सम्प्रदाय या जाति का विरोधी नहीं है ।” उसके बाद उन्होंने जनसंघ की नींव डाली. आम चुनाव के तुरंत बाद दिल्ली के नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस और जनसंघ में बहुत कड़ी टक्कर हो रही थी. इस माहौल में संसद में बोलते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगाया कि वो चुनाव जीतने के लिए वाइन और मनी का इस्तेमाल कर रही है.”आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर से सलाह करने के बाद 21 अक्टूबर 1951 को दिल्ली में एक छोटे से कार्यक्रम से भारतीय जनसंघ की नींव पड़ी और डॉ. मुखर्जी उसके पहले अध्यक्ष चुने गए।
1952 में देश में पहला आम चुनाव हुआ और जनसंघ तीन सीटें जीत पाने में कामयाब रहा। डॉ। मुखर्जी भी बंगाल से जीत कर लोकसभा में आए। बेशक उन्हें विपक्ष के नेता का दर्जा नहीं था लेकिन वे सदन में पंडित नेहरू की नीतियों पर तीखा प्रहार करते थे। है। प्रथम आम चुनाव में श्री मुखर्जी विपक्षी दल से दक्षिण कलकत्ता क्षेत्र से भारी बहुमत से विजयी होकर लोकसभा में पहुंचे । एक सशक्त विपक्षी की भूमिका में उन्होंने कांग्रेस की दुर्बल एवं तुष्टीकरण की नीति का हमेशा विरोध किया । सदन में बहस के दौरान पंडित नेहरू ने एकबार डॉ। मुखर्जी की तरफ इशारा करते हुए कहा था, ‘आई विल क्रश जनसंघ’। इस पर डॉ मुखर्जी ने तुरंत जवाब दिया, ‘आई विल क्रश दिस क्रशिंग मेंटालिटी’। शायद एक स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष की मजबूत अवधारणा की नींव तब नहीं रखी जा सकती, अगर डॉ. मुखर्जी न होते। सन् 1953 में पब्लिक सेप्टी एक्ट के तहत उन्हें बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया गया था ।
कश्मीर के संबंध में आर्टिकल 370 आदि को लेकर डॉ। मुखर्जी का विरोध मुखर था। उनका साफ मानना था कि ‘एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेंगे’।मानवता के सच्चे सेवक श्यामा प्रसाद जी का मानना था कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. आज़ादी के समय जम्मू-कश्मीर का पृथक संविधान हुआ करता था, जिसके कारण यह भारत से अलग-थलग ही था. श्यामा प्रसाद जी ने न केवल जम्मू-कश्मीर को देश में विलय करने की बात की, अपितु धारा 370 को समाप्त करने की भी पुरजोर वकालत करते हुए कहा कि, “राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही हम सुनहरे भविष्य की नींव रख सकते हैं.”
उस समय जम्मू-कश्मीर में जाने के लिए परमिट की जरूरत होती थी और वहां मुख्यमंत्री के बजाय प्रधानमंत्री का पद होता था।। डॉ. मुखर्जी इस प्रण पर सदैव अडिग रहे कि जम्मू एवं कश्मीर भारत का एक अविभाज्य अंग है. उन्होंने सिंह-गर्जना करते हुए कहा था कि, “एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान, नहीं चलेगा- नही चलेगा.” समान नागरिक संहिता बनाने की बात करने वालों ने भी कभी पलट कर ये नहीं जानना चाहा की किस ने और क्यों मारा कश्मीर के रक्षक श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी को? उस समय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता. डॉ. मुखर्जी इस प्रावधान के सख्त खिलाफ थे। उनका कहना था कि, “नेहरू जी ने ही ये बार-बार ऐलान किया है कि जम्मू व कश्मीर राज्य का भारत में 100% विलय हो चुका है, फिर भी यह देखकर हैरानी होती है कि इस राज्य में कोई भारत सरकार से परमिट लिए बिना दाखिल नहीं हो सकता. मुखर्जी ने कहा कि मैं नही समझता कि भारत सरकार को यह हक़ है कि वह किसी को भी भारतीय संघ के किसी हिस्से में जाने से रोक सके क्योंकि खुद नेहरू ऐसा कहते हैं कि इस संघ में जम्मू व कश्मीर भी शामिल है ।” उन्होंने इस प्रावधान के विरोध में भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू व कश्मीर जाने की योजना बनाई. इसके साथ ही उनका अन्य मकसद था वहां के वर्तमान हालात से स्वयं को वाकिफ कराना क्योंकि जम्मू व कश्मीर के तात्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला की सरकार ने वहां के सुन्नी कश्मीरी मुसलमानों के बाद दूसरे सबसे बड़े स्थानीय भाषाई डोगरा समुदाय के लोगों पर असहनीय जुल्म ढाना शुरू कर दिया था । 8 मई 1953 को डॉ मुखर्जी ने बिना परमिट जम्मू-कश्मीर की यात्रा शुरू कर दी। वे दिल्ली से जम्मू के रास्ते जितने भी शहरों से गुजरे, लाखों की भीड़ ने उनका स्वागत हृदय से किया ।डॉ. मुखर्जी इसे देश की एकता में बाधक नीति के रूप में देखते थे और इसके सख्त खिलाफ थे।. नेहरूजी के विरोध के बाद भी बिना परमिट के कश्मीर जाने का निश्चय उनकी दबंग, निर्भीक प्रवृत्ति का सशक्त उदाहरण है ।
जम्मू में प्रवेश के बाद डॉ। मुखर्जी को वहां की शेख अब्दुल्ला सरकार ने 11 मई को गिरफ्तार कर लिया।उन पर बिना इजाजत कश्मीर में घुसने का आरोप लगा । एक अपराधी की तरह उन्हें श्रीनगर की जेल में बंद कर दिया गया । कुछ वक्त बाद उन्हें दूसरी जेल में शिफ्ट कर दिया गया। कुछ वक्त बाद उनकी बीमारी की खबरें आने लगी, वह गंभीर रुप से बीमार हुए तो उन्हें अस्पताल ले जाया गया ।. वहां कई दिन तक उनका इलाज किया गया, माना जाता है कि इसी दौरान उन्हें ‘पेनिसिलिन’ नाम की एक दवा का डोज दिया गया, चूंकि इस दवा से मुखर्जी को एलर्जी थी, इसलिए यह उनके लिए हानिकारक साबित हुई. ।
कहते हैं कि डॉक्टर इस बात को जानते थे कि यह दवा उनके लिए जानलेवा है,बावजूद इसके उन्हें यह डोज दिया गया ।धीरे-धीरे उनकी तबियत और खराब होती गई, अंतत: 23 जून 1953 को उन्होंने हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर ली ।. मुखर्जी की मौत की खबर उनकी मां को पता चली तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ. उन्होंने नेहरु से गुहार लगाई कि उनके बेटे की मौत की जांच कराई जाये. उनका मानना था कि उनके बेटे की हत्या हुई है. यह गंभीर मामला था, लेकिन नेहरू ने इसे अनदेखा कर दिया. हालाँकि, कश्मीर में उनके किये इस आन्दोलन का काफी फर्क पड़ा और बदलाव भी हुआ. गिरफ्तारी के महज चालीस दिन बाद 23 जून 1953 अचानक सूचना आई कि डॉ। मुखर्जी नहीं रहे।
समस्त देशवासियों को एकसूत्र में पिरोने की पैरवी करने वाले श्यामा प्रसाद जी ने अगस्त 1952 में जम्मू में अपनी विशाल जनरैली में संकल्प लेते हुए कहा था कि वो या तो जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनायेंगे नहीं तो वें अपने जीवन का बलिदान दे देंगे और अंतत: धरती माता के इस वीर सपूत ने अपने कहे शब्दों को पूर्ण करते हुए अगले ही वर्ष 23 जून को जम्मू में अंतिम श्वास ली.
11 मई से 23 जून तक उन्हें किस हाल में रखा गया इसकी जानकारी उनके परिजनों को भी नहीं थी। इस बात पर डॉ मुखर्जी की मां जोगमाया देवी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को उलाहना भरा पत्र लिखकर डॉ। मुखर्जी की मौत की जांच की मांग की, लेकिन डॉ नेहरू ने जवाब में लिखा कि मैंने लोगों से पूछकर पता लगा लिया है। उनकी मौत में जांच जैसा कुछ नहीं है। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने जांच कराना मुनासिब नहीं समझा।विडम्बना यह है कि तात्कालीन सत्ता के खिलाफ जाकर सच बोलने की जुर्रत करने वाले डॉ. मुखर्जी को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी, और उससे भी बड़ी विडम्बना की बात ये है कि आज भी देश की जनता उनकी रहस्यमयी मौत के पीछे की सच को जान पाने में नाकामयाब रही है. डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी एक सच्चे राष्ट्रभक्त और राष्ट्रनेता थे । भारतीय हिन्दू संस्कृति में उनकी अटूट आस्था थी । यह कहना गलत होगा कि वे अन्य सम्प्रदाय व जाति के विरोधी थे । वे सच्चे भारतीय थे । भारतीयता की रक्षा ही उनके जीवन का सिद्धान्त था, जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया । डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा कि
“हमारा देश सांस्कृतिक रूप से एक है, हम सभी एक भाषा और एक संस्कृति के आधार पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. हमारी अनूठी संस्कृति ही हमारी अनमोल विरासत है, इसलिए हमें धर्म के नाम पर विभाजित नहीं होना चाहिए और देश को तोड़ने वाली हर व्यवस्था को हमें अस्वीकार कर देना चाहिए.”
आज भले ही डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु उनके विचार, आदर्श और सिद्धांत प्रत्येक भारतवासी के अंतर्मन में रमते हैं. अखंड राष्ट्र के परिचायक, मानवतावाद के सूत्रधार, जुझारू राजनीतिज्ञ के रूप में उन्होंने देश को एकता की जो सीख दी है, उसे हर देशवासी याद रखेगा और युगों युगों तक इसी प्रकार आत्मिक श्रृद्धांजली डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को दी जाती रहेगी. । उन्होंने सत्ता की लालसा नहीं बल्कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के ध्येय को लेकर जनसंघ की स्थापना की।मुखर्जी ने देश की अस्मिता और अखंडता की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया. उन्होंने भारत का पुनः विभाजन होने से बचाया. उनका त्याग, समर्पण और उनके आदर्श युग-युगांतर तक आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे । डॉ. मुखर्जी भारत के लिए शहीद हुए और भारत ने एक ऐसा व्यक्तित्व खो दिया, जो राजनीति को एक नई दिशा प्रदान कर सकता था। डॉ मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से ही सब एक हैं, इसलिए धर्म के आधार पर किसी भी तरह के विभाजन के वे ख़िलाफ़ थे। उनका मानना था कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अंतर नहीं है। हमारी भाषा और संस्कृति एक है। यही हमारी अमूल्य विरासत है। उनके इन विचारों और उनकी मंशाओं को अन्य राजनीतिक दलों के तात्कालिक नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। लेकिन इसके बावजूद लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया।
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी हम सबके हृदय में अमर रहें.