“बलि” (कहानी) सुप्रतिष्ठित कथावाचक ‘गंभीर सिंह पालनी’

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कभी छोटी विलायत के रूप में जाने – जाने वाले, पर्वतों की गोद में स्थित इस सुंदर शहर में पर्वत बैंक नामक बैंक का मुख्यालय एक विशाल भव्य भवन में है जिसमें गणपत नामक एक युवक कार्यरत है ।

गणपत ने प्राइमरी कक्षाओं से लेकर पोस्ट ग्रेजुएशन तक की अपनी पढ़ाई सदैव प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। नैनीताल जिले की तराई में स्थित अपने गाँव में ही रहकर और पास के कस्बे के विद्यालय और फिर महाविद्यालय में साईकिल से जा- जा कर उसने पढ़ाई पूरी की । इसके बाद जीवन में पहली बार नैनीताल नामक इस मशहूर शहर में पहुँच कर उसने नौकरी शुरु की । आर्थिक रूप से अत्यंत पिछड़े परिवार से होने के कारण जिन पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियों का सामना उसने किया था, उन्हें देखते हुए एक साधारण समझी जाने वाली नौकरी से अपने कैरियर की शुरुआत करना गणपत के लिये बहुत बड़ी बात थी । नैनीताल में नौकरी लग जाने को उसने सौभाग्य का विषय समझा और इस शहर में मिली पोस्टिंग का लाभ उठाने के लिये उसने तुरंत ही नैनीताल स्थित कुमाऊँ विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर के निर्देशन में शोध के लिये अपना रजिस्ट्रेशन भी करवा लिया। सोचता था कि यहाँ नौकरी करते हुए ही पी-एच्. डी. भी कर लेगा । यह उन दिनों की बात है जब यह झंझट नहीं था कि पी- एच्. डी. करने के लिये विश्वविद्यालय में प्रतिदिन नियमित रूप से जाना पड़ता हो । आजकल कॉलेज या विश्वविद्यालय की नौकरी के लिये आवश्यक समझी जाने वाली नेट की परीक्षा का आयोजन भी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने तब शुरू नहीं किया था। कुल मिला कर वह भविष्य के प्रति अपनी योजनाओं को मूर्त रूप देने को ले कर आश्वस्त था।
नैनीताल शहर में नैनी झील के किनारे स्थित पर्वत बैंक में नौकरी करने के लिये आसानी से मिल गये इस अवसर को वह सहज मिल चुके एक ‘लॉन्चिंग पैड ’ के रूप में ले रहा था जहाँ से लम्बी छलांग लगा कर सामने की ऊँची पहाड़ी पर स्थित कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कैंपस कॉलेज में नियुक्ति पा लेना उसका सपना था।
उसे विश्वास था कि यदि सब कुछ इसी प्रकार सामान्य चलता रहा तो वह अगले लगभग ढाई वर्ष बीतते – बीतते अपनी पी-एच्.डी. की थीसिस विश्वविद्यालय में जमा कर ही देगा । उसके बाद डिग्री मिलते के उपरांत लेक्चरर का जॉब मिल जाने की पूरी संभावना थी। वह यह सपना पाले हुए था कि पहले विश्वविद्यालय में लेक्चरर , फिर रीडर और उसके बाद प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष । उससे भी आगे यदि सब ठीक चलता रहा और किस्मत ने साथ दिया तो देश के किसी विश्वविद्यालय में वाइस चांसलर बनने का अवसर भी मिल सकता है।
चूँकि उसके पास अपना एक अलग ही काफी बड़ा सपना था, इसीलिये इस दफ़्तर में नौकरी करते हुए वह किसी भी प्रकार के व्यर्थ के झमेलों या चोंचलों में नहीं पड़ता था । वह बस अपने काम से मतलब रखता था । जो सामने पड़ गया, उसे नमस्ते कर दी । किसी का पिछलग्गू बनकर नहीं घूमता था । यही उसके नौकरी करने का तरीका था। चूँकि लंबे समय तक इस संस्थान की नौकरी करने की उसकी कोई योजना नहीं थी, इसलिये वह किसी की भी चाटुकारिता करने यानी लप्पो – चप्पो के चक्कर में भी कभी नहीं पड़ता था ।
बेरोजगारी के दिनों से गुजरते हुए इस संस्था में आसानी से मिल गयी यह नौकरी उसे आकर्षक लगी थी। इसलिये उसने नौकरी ज्वाइन तो कर ली थी पर ज्वाइन करने के कुछ दिनों के भीतर ही उसकी समझ में आने लग गया था कि यह संस्था किसी चिड़ियाघर से कम नहीं। इस चिड़ियाघर में ‘वार्डेन’ और ‘केयरटेकरों’ के अलावा शेर, बाघ ,चीते,हाथी , गैंडे , बारहसिंघे , हिरन , खरगोश , कुत्ते , बिल्ली, जिराफ, जेब्रा , ऊँट और घोड़ों के अलावा सफ़ेद हाथी, सफ़ेद भालू , खच्चर , टट्टू ,गधे , भेड़ ,लकड़बग्घा , भेड़िया , लोमड़ी, सियार, शाही , बिज्जू, बिसखोपरे, चूहे , गिरगिट, कनखजूरे, और साँपों की प्रजातियों के जीव भी अपने – अपने हिसाब से मौज ले रहे थे । साँपों की तो वहाँ कई प्रजातियाँ थीं – जैसे दोमुहाँ साँप , आस्तीन में बसने वाले साँप और अजगर आदि।
यही नहीं एक मिस्टर काव भी थे जो स्वयं को रिंग मास्टर समझते थे और हर समय एक ‘चाबुक ’ साथ में लिए चलते थे। राघवेंद्र व्यवधान जैसे बिषखोपरे भी थे तो मिस्टर आमोद वसंतसेना जैसे कानूनची भी, जो अपने को किसी नानी पालकीवाला से कम नहीं समझते थे।
बैंक में सभी जन्तु अपने – अपने हिसाब से विचरण कर रहे थे । मौज ले रहे थे। कई अधिकारी और कर्मचारी तो ऐसे भी थे जो चारा चरने का उपक्रम करते हुए बैंक की ‘बाड़ ’ को चर लेने से भी नहीं चूकते थे ।
कवि मलूकदास ने लिखा है, “ अजगर करे न चाकरी , पंछी करे न काम । दास मलूका कह गए सब के दाता राम॥ ” यदि मलूक दास जी आज जीवित होते और उन्हें पर्वत बैंक के स्टाफ के संपर्क में आने का अवसर मिलता तो वे अपनी उपरोक्त पंक्तियों से भी ज्यादा गहरी पंक्तियाँ लिख डालते।
उल्लेखनीय बात यह है कि पर्वत बैंक का अपना स्वयं का कोई चेयरमैन या जनरल मैनेजर नहीं होता । इन दोनों पदों पर काम करने के लिये बम्बई (अब मुंबई) के एक बड़े बैंक (कहानी कहने की सुविधा के लिये आगे हम इसे ‘बड़ा बैंक ‘ कहेंगे ) से उच्चाधिकारियों को तीन – तीन वर्ष के लिये प्रतिनियुक्ति पर भेजे जाने की व्यवस्था चली आ रही है।
पर्वत बैंक का मुख्यालय ( हैड ऑफिस यानी एच. ओ. ) किसी बड़े मॉल से कम नहीं ; आकार में भी और संरचना में भी। जहाँ एक तरफ इसका ‘ एच. ओ. ‘ होना सार्थक करते हुए इसके विभिन्न विभागों में संजीदगी के साथ काम करने वाले छोटे – बड़े कर्मचारी और छोटे – बड़े अफसर हैं तो दूसरी तरफ इसे ‘बिग – मॉल’ मानते हुए इस के भीतर ‘अपनी – अपनी दुकान’ चला रहे चंद ऐसे अफसर भी हैं जिन की दास्तान बिल्कुल ही निराली है।
इन निराले अफसरों का धंधा है — संस्था में दो या तीन वर्ष के लिये प्रतिनियुक्ति पर मुंबई से आने वाले चेयरमैन- कम – मैनेजिंग डाइरेक्टर या फिर जनरल मैनेजर के केबिन में , मौका मिलते ही , घुस जाना और उन के तलवे सहलाना ; उन के लिये अपने एक हाथ में पीकदान उठाकर कर चलना और जरूरत पड़ने पर दूसरे हाथ में थामा हुआ यूरीन – पॉट भी तुरंत प्रस्तुत कर देना। वैसे इन लोगों का प्रमुख धंधा है — संस्था में निष्ठापूर्वक काम करने वाले अन्य लोगों की छवि को, मौका मिलने पर अकारण ही धूमिल करना या किसी व्यक्ति विशेष की छवि चमकाना। जहाँ एक तरफ किसी की भी छवि धूमिल करना इनका शौक है वहाँ दूसरी तरफ किसी व्यक्ति विशेष की छवि चमकाना इनका धंधा है। अपने शौक के लिये वे शिकार करते हैं जबकि धंधा अपने ‘क्लाइंट ‘ के लिये करते हैं।
धंधे के लिए वे अपने ‘क्लाइंट’ से मेहनताना लेते हैं और बयाना ले कर अपना काम शुरू कर देते हैं जब कि अपने शौक के लिए तो वे किसी का भी शिकार कर सकते है। वैसे यदि मिल जाये तो वे कभी – कभी, किसी बंदे की छवि धूमिल करने की सुपारी भी ले लेते हैं। इसके अलावा ये लोग समय – समय पर अपना ‘शिकार’ और ‘क्लाइंट’ भी बदलते रहते हैं। ऐसे लोग संस्था में ज़्यादातर समय अपने धंधे और शौक दोनों की सफलता के लिये हथकंडे आजमाने में लगे रहते हैं। ऐसा किये बगैर इन लोगों का खाना हजम नहीं होता।
ऐसे लोगों में प्रमुख हैं मिस्टर गडेरी लाल ‘वाह’ जी । ‘ वाह’ जी के बारे में तो प्रायः ये सुना जाता है कि उन्हें यदि कहीं से मिल जाय तो वे अपने स्वर्गीय माता – पिता के चरित्र – हनन की सुपारी भी ले सकते हैं। ऐसा भी सुनने में आया है कि उनका ‘सरनेम’ कुछ और है लेकिन चूँकि वे उच्चाधिकारियों के हर गलत – सही प्रस्ताव का अनुमोदन सदैव ‘ वाह ‘ कह कर करते पाये जाते हैं , इसलिये स्टाफ के लोगों ने उनका नामकरण ‘वाह’ जी कर दिया है।
सफेद हाथी गडेरी लाल ‘वाह’ जी
यह समझा जाता है कि पूरे बैंक में गडेरी लाल ‘वाह’ जी एक अलग ही किस्म की हस्ती हैं। ज़्यादातर लोगों की राय यह है कि गडेरी लाल ‘ वाह ‘ जी के संदर्भ में ‘हस्ती’ से तात्पर्य रेख़ता भाषा के ‘हस्ती’ शब्द से नहीं , अपितु हिन्दी भाषा के ‘हस्ती’ शब्द से है और वह भी श्वेत रंग के हस्ती ( हाथी ) से। ऐसा लगता है कि शायद इस बैंक की कोई गुप्त नियमावली है जिसमें यह प्रावधान है कि बैंक द्वारा चंद सफ़ेद हाथियों का भी भरण – पोषण किया जाता रहेगा। गडेरी लाल ‘ वाह ‘ जी बैंक की उसी गुप्त नियमावली के तहत बैंक में नियुक्ति पा गये हैं और यह सिद्ध करने में कोई कोर – कसर नहीं छोड़ते कि वे वास्तव में एक सफ़ेद हाथी हैं।
यूं तो बैंक के प्रधान कार्यालय के परिसर में यह सफ़ेद हाथी प्रायः यहाँ – वहाँ मँडराता हुआ दिखलाई पड़ जाता है पर यदि विभिन्न राज्यों में फैले बैंक के समस्त शाखा कार्यालयों की बात की जाय तो बैंक में गडेरी लाल ‘ वाह ‘ जी के अतिरिक्त पाये जाने वाले अन्य सफ़ेद हाथियों की संख्या भी कुछ कम नहीं । सफ़ेद हाथियों की भारी तादाद को देखते हुए स्टाफ के कुछ जागरूक बन्दों ने होली से कुछ दिन पहले एक गुप्त मीटिंग की। इस मीटिंग का नतीजा यह रहा कि संस्था के नये चेयरमैन (जिन्होंने कुछ सप्ताह पहले ही ज्वाइन किया था ) जब होली के पहले दिन सुबह दस बजे अपने चेम्बर में प्रवेश करने लगे तो उनकी नजर प्रवेश द्वार के पास लगे नोटिस – बोर्ड पर चिपके एक इश्तहार पर पड़ी । इश्तहार चूंकि लाल रोशनाई से लिखा गया था, इसलिए उनकी नजर उस पर बरबस पड़ जाना स्वाभाविक ही था :
हमारे इस बैंक को घटती हुई लाभप्रदता की स्थिति से उबारने के लिए कुछ सुझाव :–
चिंता का विषय है कि हमारे बैंक की लाभप्रदता निरंतर घटती जा रही हैं । प्रमुख कारण किसी से छिपा नहीं है कि संस्था के स्टाफ में गडेरी लाल ‘वाह’ जी जैसे सफेद हाथियों की अच्छी – खासी संख्या हो चली है जिस से बैंक को हो रहे भारी नुकसान की अनदेखी नहीं की जा सकती । ये ऐसे लोग हैं जो काम करने के बजाय गोबर – ही – गोबर उत्पादित करते रहते हैं । हमारे बैंक का उच्च प्रबंधन यदि ऐसे सफेद हाथियों की छँटनी कर के उन्हें बाहर नहीं कर सकता तो इतना तो कर ही सकता है कि इन सफेद हाथियों के द्वारा उत्पादित गोबर आदि का समुचित उपयोग कर के बैंक की आर्थिकी को मजबूत करने के विषय में गंभीरता से विचार कर के उस दिशा में सार्थक प्रयास करे । गोबर में विभिन्न खनिज जैसे पोटैशियम, फास्फोरस, नाईट्रोजन, चूना,पोटाश, मैंगनीशियम,लोहा , सिलिकन, एल्यूमिनियम, सल्फर,आयोडीन , कोबाल्ट , मोलिब्डिनम आदि खनिज पाये जाते हैं । बैंक प्रबंधन इन खनिजों का परिशोधन (extruction) करने हेतु प्लांट लगाकर इन उत्पादों की बिक्री से बैंक की सकल आय में पर्याप्त वृद्धि कर सकता है। उच्च प्रबंधन के लिये एक सुझाव यह भी है कि वह इस प्रयोजन हेतु एक गोबर – गैस प्लांट भी लगाये। इस प्लांट में पैदा होने वाली गोबर – गैस के साथ ही उस गैस से पैदा की जा सकने वाली बिजली को भी बेच कर बैंक द्वारा अच्छा- खासा मुनाफा कमाया जा सकता है।
बॉम्बे से प्रतिनियुक्ति पर नये – नये आये चेयरमैन साहब के लिये यह नोटिस पढ़ना बिल्कुल नये किस्म का अनुभव था। नोटिस पढ़कर मंद – मंद मुस्कराते हुए वे अपने चेम्बर में चले गये । उनके अलावा अन्य कई लोगों ने भी यह नोटिस पढ़ा। यही कारण था कि यह नोटिस कई दिन तक चर्चा का विषय रहा।

कलईगर और मुलम्ची

बैंक के मानव संसाधन विभाग में प्रबंधक की गद्दी संभाल रहे मिस्टर गडेरी लाल ‘ वाह ‘ जी जहाँ एक तरफ अपने विभागीय कार्यों के संपादन के मामले में सफेद हाथी साबित हुए हैं, वहाँ दूसरी तरफ उनकी भूमिका किसी मगरमच्छ से कम नहीं । हम पूर्व में भी इस बात की चर्चा कर चुके हैं कि बैंक रूपी इस मॉल में गडेरी लाल ‘वाह’ जी और उन जैसे कुछ अन्य प्राणियों का भी कब्ज़ा है जो थोड़ा – बहुत विभागीय काम- काज कर लेने के अलावा ‘कलई करने का धंधा’ भी साथ में करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि ये प्राणी ‘कलई ‘ कर के किसी पात्र की छवि को चमकाने का धंधा तो करते ही हैं ( यह पात्र स्टाफ का कोई ऐसा सदस्य हो सकता है जिस पर वे मेहरबान हों ) , उसके साथ – साथ अपना शौक पूरा करने के लिये किसी पात्र (स्टाफ के किसी सदस्य) की चमक ( छवि ) को भारी नुकसान पहुँचाने का काम भी करते रहते हैं । पहला काम वे इरादतन करते हैं तो दूसरा काम आदतन करते हैं । शुरु – शुरु में वे दूसरा काम अपने शौक के लिये किया करते थे पर बाद में यह शौक उन पर इस कदर हावी हो गया कि उनकी आदत में तब्दील हो कर उनका स्वभाव ही बन गया।
जहाँ तक इरादतन कलई करने के काम की बात है, यह काम उनके द्वारा बैंक के उन कारिंदों की छवि को चमकाने के लिये किया जाता है जो उनके ‘क्लाइंट’ बन गये हों। ऐसा नहीं है कि अपनी ‘दुकान’ में पहुंचने वाले पात्रों को चमकाने की करामात कर के ही वे अपना व अपने बच्चों का पेट पालते हों । जिस पद पर उनकी नियुक्ति है, उसके लिये वे बैंक के खज़ाने से हर महीने अच्छी – खासी पगार लेते हैं लेकिन अपने शौक व आदत दोनों से मजबूर होने के कारण वे किसी की छवि चमकाने व किसी की खराब करने (दोनों तरह) की करामातों को तसल्ली से अंजाम देते रहते हैं । उनकी ये करामातें किसी करिश्मे से कम नहीं होती।
गडेरी लाल ‘वाह ‘ जी की इस दुकान का एक एक्सटेंशन काउंटर नैनीताल के तल्लीताल क्षेत्र में स्थित उनके घर पर भी अघोषित रूप से मौजूद है जहाँ सेवा – शुल्क जमा किया जा सकता है। इस सेवा शुल्क की महिमा इतनी अपरंपार होती है कि बैंक द्वारा प्रति माह गडेरी लाल जी के बैंक एकाउन्ट में जमा की जाने वाली तनख्वाह को उनके द्वारा चैक या विड्राल फॉर्म से नगदी के रूप में निकाले जाने के अवसर कम ही आ पाते हैं।
बैंक में कार्यरत गडेरी लाल ‘वाह ‘ जी जैसे ये सफेद हाथी – सह – मगरमच्छ ( व्हाइट एलिफैंट – कम- क्रोकोडाइल) भी दो किस्म के हैं। पहली किस्म के मगरमच्छ ‘कलईगर’ हैं और दूसरी किस्म के मगरमच्छ ‘मुलम्ची’ या ‘मुलन्मासाज’ हैं। पहली किस्म वालों से ज्यादा मोल – भाव नहीं करना पड़ता लेकिन ऐसा भी संभव नहीं कि कोई उनसे पानी में पकौड़े तलवा ले।
गडेरी लाल ‘वाह ‘ जी की मालिश करने के लिए तो पर्याप्त मात्रा में तेल खर्च करना पड़ता है। यह तेल कडुआ हो या मीठा , सब चलता है । जमीन के उपर उपजने वाली वनस्पतियों का तेल ही नहीं, अपितु जमीन के भीतर पैदा होने वाला कोई तेल भी चलता है। जब तक स्टोवों में खाना बनाने का जमाना था, तब तक मिट्टी का तेल भी चलता था । सच तो यही है कि जब तक बत्ती वाले स्टोव का जमाना रहा, गडेरी लाल ‘वाह ‘ जी ने उसमें उपयोग करने के लिये किरोसिन ऑयल कभी ख़रीदा ही नहीं। यहाँ तक कि उनके स्कूटर में भी पेट्रोल दूसरे लोग ही डलवाते रहे और अब भी डलवाते हैं।
अगर जमीन के उपर उत्पादित होने वाले तेलों की बात की जाये तो बादाम का तेल उनकी प्रिय पसंदों में शामिल है। इस हेतु वे साबुत बादामों के पैकेटों से भरी पेटियाँ गिफ्ट के रूप में पाना पसंद करते हैं। इन पेटियों में भरे बादामों से तेल निकालने का गोरखधंधा वे घर पर ही कर लेते हैं। कुल लब्बोलुआब यह है कि अपने सामने पड़ने वाले हर बंदे का कुछ – न – कुछ तेल निकाल कर ही वे उसके किसी काम के लिए अपने कदम आगे बढ़ाते हैं। अखरोट से शुरू होकर काजू, बादाम, चिरोंजी वगैरह कुछ – न – कुछ मेवा उन्हें चाहिए ही होता है, तभी वे अपने ‘क्लाइंट ‘ की सेवा करते हैं। यदि बादाम न हो तो चिनिया बादाम भी चलता है। जब कभी उन्हें ऐसा लगता है कि सामने वाले की जेब तो बिल्कुल खुक्कल है तो वे यह कहते हुए पाये जाते हैं, “नाई दगड़ सल्ला न, खोर भीजे बे बैठाई। ” ( नाई के साथ कुछ तय नहीं हुआ, खोपड़ी के बाल भिगो कर बैठ गये।”)
दूसरी किस्म वाले कलईगरों के रेट अपेक्षाकृत ज्यादा हैं। उनकी चाल में ठसक होती है और उनकी हनक भी अलग ही होती है । वे स्वयं को कलईगर से सुपर भी मानते हैं। ये लोग खुले आम कहते हैं, “कलईगर तो पात्र पर रांगे की कलई चढ़ाकर उसे चमकाने का धंधा करता है जब कि हम तो पात्र पर सोने व चाँदी का मुलम्मा चढ़ाकर उस में चमक पैदा करते हैं। अगर जेब में माल नहीं है तो हमारी दुकान के आगे खड़े मत होओ। आगे बढ़ो, रास्ता नापो। फिर कभी सामने दिखाई भी पड़ गए तो तुम्हारी छवि ऐसी खराब करूंगा कि ज़िंदगी भर भले ही डट कर मेहनत करते मर जाओगे लेकिन पनप नहीं पाओगे। ” इसके साथ ही उस बेचारे ‘गरीब ’ क्लाइंट पर कटाक्ष करते हुए उसे सुनाने से नहीं चूकते , “सब छउड़ी झुम्मरि खेलय, लुल्ली कहे हमहूँ। ”
ये बंदे ऐसा कह तो देते हैं लेकिन जब नैनीताल में पड़ने वाली कड़ाके की सर्दियों में दुकान में कोई पात्र/ सुपात्र / कुपात्र नहीं पहुंचता तो ये बेचारे ‘कड़की ‘ (मंदी ) का सामना करते हैं। जिन दिनों नैनीताल में खूब बर्फ गिरने लगती है और ठंड बर्दाश्त से बाहर हो जाती है उन दिनों ये ‘कलईगर’ और ‘मुलम्ची’ येन – केन – प्रकारेण अपने लिये ऑफिसियल टूर का कोई प्रोग्राम मंजूर करवा लेते हैं और अपनी ‘पेटी व औज़ारों की पोटली’ उठाए प्रदेश की तराई व मैदानों की ओर फेरी लगाने निकल पड़ते हैं। तब वहाँ स्थित बैंक के शाखा कार्यालयों में कार्यरत किसी भी पात्र, सुपात्र और कुपात्र के लिये अपनी सशुल्क सेवायें प्रदान करने की बुकिंग करने में ये फेरी वाले कोई भेद-भाव नहीं करते| अगर पूर्व में इनके द्वारा दुत्कार कर भगाये गये बंदे से इनका सामना गलती से हो ही गया तो ये उस से अत्यंत भोलेपन से कहने लगते हैं, “ कैसे हो भैया?………पिछली बार के अपने व्यवहार के लिये शर्मिंदा हूँ। उस दिन तुम्हारी भाभी से रात में झगड़ा हो गया था। इसलिए मेरा मूड कुछ ज्यादा ही खराब था। बताओ बंधु! मैं आपके किस काम आ सकता हूँ?”
इतना कह चुकने के बाद जब वे यह देखते हैं कि सामने वाले के चेहरे पर अभी भी उस दिन के अपमान के / भाव / घाव / निशान / अनुभूतियों के चिन्ह नजर आ रहे हैं तो वे उसे किसी भी तरह अपने करीबी होने का एहसास कराने के लिये ऐसा कह डालने में भी गुरेज नहीं करते हैं , “ यार , अब आपको क्या बतलाऊँ ; जिन दिनों तुम्हारी भाभी पीरियड्स से होती हैं , उन दिनों वह खुद तो चिड़चिड़ी हो ही जाती है , मुझे भी चिड़चिड़ा बना डालती है । ”
उनके ऐसा कहने का परिणाम यह होता कि एक उच्चाधिकारी के मुखारविंद से निकली इस तरह की बातों की आत्मीयता की ऊष्मा से सामने मौजूद पात्र पिघल- पिघल जाने को आतुर हो उठता। इस बंदे की जेब से “ कुछ तो झड़ेगा ” सोचते हुए यह फेरीवाला अपने काम में जुट जाता जब कि पिछली मुलाक़ात के बाद बीत चुकी अवधि में विभिन्न स्रोतों से इस कलईगर या मुलम्ची की असलियत जान चुका बंदा महज इसलिए थोड़ा – बहुत चारा इस मगरमच्छ के आगे डाल देता कि भविष्य में कभी कहीं यह मगरमच्छ उसे घसीट कर किसी दलदल में न फंसा दे।
यदि वह बंदा किसी शाखा कार्यालय का इंचार्ज हुआ तो उस बेचारे की स्थिति कुछ और ही होती है। दिसंबर- जनवरी के महीनों में प्रदेश की तराई में स्थित बैंक शाखाओं के लगभग हर मैनेजर को उस क्षेत्र की राईस मिलों से बासमती चावल के कट्टे इकट्ठे कर ट्रांसपोर्ट के माध्यम से इन फेरी वालों की पोस्टिंग के स्थान के अलावा इन के पैतृक घरों के पतों के लिये भी बुक करते हुए देखा जा सकता है।
कलई या मुलम्मा चढ़ाने की दुकान चलाने वाले इस विषय में लेशमात्र भी नहीं सोचते कि जिस पात्र की वे छवि चमका रहे हैं , वह सुपात्र है भी या नहीं। जिन पात्रों में कोई छिद्र हो, उन पात्रों को चमकाने का मेहनताना अपेक्षाकृत ज्यादा लिया जाता है। इस के अलावा उक्त छिद्र में रांगे का टाँका लगवाने का मेहनताना अलग से चार्ज किया जाता है। वैसे रांगे के बजाय किसी अन्य धातु का टाँका लगाने की आवश्यक आवश्यकता होने की स्थिति में उस के लिए हर धातु के हिसाब से अलग – अलग दरें तय हैं।
गडेरी लाल ‘वाह ‘ जी की महिमा न्यारी है। जब कोई व्यक्ति उनके पास आ कर अनुनय – विनय करता है कि सर , इस बैंक में अफ़सरी करते हुए कई साल हो गये लेकिन अब तक ब्रांच मैनेजरशिप कभी नहीं मिली तो वे अपनी तीखी व पारखी नज़रों से उसकी जेब टटोलने के काम में जुट जाते हैं। यदि इस बीच आगंतुक ने अपनी जेब से निकाल कर उन्हें ‘बयाना ’ पेश कर दिया तो ठीक ,अन्यथा वे पहले इस बात पर गौर करते हैं कि ‘पदलोलुप’ व्यक्ति पहाड़ीमूल का है या देसी है। यदि पहाड़ी मूल का हुआ तो वे उस से कहते हैं, “ जिस कस्बे में तुम पोस्टिंग चाहते हो, वहाँ के लिये पहले ही किसी और बंदे का नाम ‘उपर वालों ‘ को सुझा चुका हूँ। आज तक कहाँ थे आप? ” फिर अपनी बात को थोड़ा कुमाऊँनी ‘टच’ देते हुए कहने लगते हैं , ” यस नी हूँ महाराज कि चढ़न बखत घोड़ो , लड़न बखत घी।” (सवारी के लिये जरूरत पड़ने पर घोड़ा खोजना, लड़ाई के लिये तैयार होते समय घी पीना। )
मजे की बात यह कि उस ‘पद लोलुप’ के चले जाने के बाद वे अपनी ‘ज्वै’(पत्नी ) से मुखातिब हो कर कहते हैं, “भल भल मर गया , कुकुराक च्याल पधान।” और यदि ‘पदलोलुप ’ बंदा पूरब मूल का हुआ तो वे यह कहने से नहीं चूकते , “लंगड़ा रे घोड़ा पर चढ़बै, हम दुनू टाँग अलगौने छी। ”
लेकिन सच्चाई यह भी है कि अगर उनके (घर में ) मन (भर)आता है तो वे किसी अंधे को भी कहीं भी बैंक की किसी ब्रांच का इंचार्ज बनवा देते हैं। इस अंधे को दफ्तर चलाने में कोई दिक्कत न हो, इस के लिये किसी ‘ टुंडे ‘ और ‘लँगड़े ‘ को ( जो कि कुछ समय पूर्व ही भारी – भरकम चार्जशीट थाम लेने के कारण फिलहाल ‘हाथों से टुंडा’ और ‘टांगों से लाचार ‘ हो) इस इंचार्ज का असिस्टेंट इंचार्ज बना कर पोस्टिंग दे देते हैं। उनके इस कारनामे की बदौलत बैंक की उस शाखा की स्थिति कुछ इस प्रकार की हो जाती है:
“अंधरा – लंगड़ा सदा उपायी , घोड़ा मं चढ़ के बंदूक चलाई। ”
या फिर,
“ अंधरा पादै तो भैरा कहे जोहार। ”
ब्रांच मैनेजर बनने के लिये लालायित ऐसे ‘क्लाइंटों’ से अधिक से अधिक माल ऐंठने के चक्कर में गडेरी लाल ‘वाह’ जी उस बंदे में जबर्दस्ती कोई कमी बतलाने लगते हैं। अपने कानों को हाथ लगाते हुए वे कहते हैं ,
“ ये काम नहीं हो सकता भैया । कानी के ब्याह में सौ सौ जोखिम। ”
वैसे तो कोई भी अनुभवी कारीगर कलई के लिये आये पात्र के छिद्रों की संख्या व आकार का अंदाजा स्वयं ही लगा लेता है पर कभी – कभी उस की पारखी नज़रें भी चूक जाती हैं। ऐसी स्थिति में आलम यह होता है कि कोई पात्र (क्लाइंट ) तो अपने छुपे हुए छिद्र की जानकारी गडेरी लाल ‘वाह’ सर को दे देता है लेकिन कोई – कोई नहीं भी देता। फिर भी इन साहब की ‘सेवा’ करने मात्र से ऐसे पात्र का काम बन जाता है और मजे में चलता रहता है।
इस प्रकार की कवायद का अंजाम यह होता है कि कभी – कभी ऐसे – ऐसे लोगों को भी कहीं – न – कहीं की ब्रांच मैनेजरशिप मिल जाती है जिन के पास उस पोस्ट के लिये अपेक्षित पोस्ट सम्बन्धी पर्याप्त ज्ञान नहीं होता। कुछ वाकये ऐसे भी हुए कि ब्रांच मैनेजर बनाए गए ऐसे किसी कुपात्र की कलई खुल गई। ऐसा विशेषकर तब हुआ , जब साइट्रिक एसिड की प्रकृति वाला कोई नीबू जैसा कर्मचारी या असिस्टेंट मैनेजर अपने इंचार्ज की कलई उतारने पर उतारू हो गया।
गडेरी लाल ‘वाह ‘ जी की कृपा से इंचार्ज बने ऐसे (कु) पात्रों को हर समय मन -ही- मन यह भय लगा रहता कि कहीं प्रधान कार्यालय में मौजूद तेजाब सिंह जैसे उच्चाधिकारी उनकी कमियाँ भाँप न लें। इस बात का परिणाम यह होता कि डायटिंग किये बिना ही उनका वजन घटता रहता।
माटी के लाल और शिकारी पक्षी
गाँव – देहात में उपजे कई ‘ माटी के लाल’ भी इस बैंक में नौकरी करने आए हुए हैं। ब्रांच मैनेजर की कुर्सी पर बैठ चुके कुछ ऐसे ‘बेचारों’ को इस बात का जरा भी इल्म नहीं होता कि इस वित्तीय संस्था में कहीं भी नौकरी करते हुए उनकी हैसियत एक ‘पात्र’ से ज्यादा नहीं। वे बेचारे अनभिज्ञ होते हैं कि किसी भी बैंक में नौकरी पा सकने की अपनी पात्रता सिद्ध कर, उस नौकरी में लग जाने वाले किसी भी पात्र में कभी- न – कभी कोई – न – कोई छिद्र हो जाना एक मामूली-सी घटना होती है। इस समस्या का हल यही होता है कि किसी टाँका लगाने वाले से चुपचाप अपने छिद्र में टाँका लगवाकर बढ़िया तरीके से काम चला लेने की जुगत भिड़ाई जाये। बहुत से ‘पात्रों ‘ को यह इल्म नहीं होता। इस इल्म के अभाव में वे बेचारे अपने ‘छिद्र’ को मिट्टी से ही लीप कर काम चला लेने की भूल कर बैठते हैं और अपनी इस भूल का खामियाजा वे मैनेजमेंट से उन्हें मिलने वाले ‘सो – कॉज – नोटिस ’ और उसके बाद ‘चार्जशीट’ आदि के रूप में प्रायः झेलते हैं।
प्रायः देखने में आता कि इन बेचारों को समय रहते पेशेवर कुशल कलईगर का पता न लग पाने के परिणाम स्वरूप , किसी कस्बे या शहर में स्थित बैंक के किसी शाखा कार्यालय में शिथिल बैठे हुए ये हताश पंछी नये – नये शिकारों की तलाश में बाज़ की तरह आसमान में उड़ रहे कुछ ‘शिकारी पक्षियों’ के चंगुल में फँस जाते।
“तुझे हम मैनेजमेंट के पंजों से बचा लेंगे ” —- मजबूर पंछी को यह दिलासा देने वाले शिकारी बाजबहादुरों (बाजों )के कानों को जब यह पुकार सुनाई पड़ती, “ प्रभो, मुझे किसी भी तरह बचा ही लीजिये। ” तो मौके की नज़ाकत देख कर और शिकार की बेचैनी माप कर ये शिकारी पक्षी अपने मेहनताने में बढ़ोत्तरी कर देते। ये शिकारी पक्षी और कोई नहीं बल्कि हताश पंछियों को घेर – घार कर शुरु किये गये कर्मचारी – अधिकारी संगठनों के कर्ता – धर्ता बन्दों में से ही होते थे । इन शिकारी पक्षियों पर विस्तार से चर्चा अलग से की जा सकती है। अब फिर से कलईगरों पर आते हैं।
कलईगर व मुलम्ची से भी बढ़कर है दुमची
सारे ‘कलईगरों ’ या ‘मुलम्चियों ’ में एक समानता है कि उन की दृष्टि में गणपत या उस जैसों की हैसियत एक ‘क्लाइंट’ से ज्यादा नहीं। जो भी ‘क्लाइंट ’ उन के पास पहुँच जाता है , वे उस के लिये काम करने में जुट जाते हैं। जैसे कोई वकील ‘क्लाइंट ’ द्वारा वकालतनामे में दस्तखत बना दिये जाने के बाद ही अपना काम शुरू करता है , वैसे ही ये भी तभी अपना काम शुरू करते है जब वह बंदा इनका चरण – चुंबक बन जाये। इन्हें इस बैंक के हित से जैसे कोई मतलब नहीं; इनकी दुकान चलती रहनी चाहिए , बस। जब कोई “आँख का अंधा , गाँठ का पूरा ” मुसीबत में फँसा बंदा (स्टाफ) इनके चंगुल में फंस जाता है तो ये बंबई (अब जिसे मुंबई कहा जाता है ) से प्रतिनियुक्ति पर आए नए – नए चेयरमैन या जी. एम. को अपने इस क्लाइंट के बारे में कुछ इस अंदाज में ‘फीड बैक ‘ देते हैं, “आगाँ कुब्बर पाछाँ कुब्बर, हमर भतार बड़ सुंदर. ” (आगे कूबड़ पीछे कूबड़, हमारा भरतार बहुत सुन्दर। )
वैसे कलईगर और मुलम्ची अपने आप को चाहे कुछ भी समझें पर जी.एम. और चेयरमैन की नज़रों में उन की हैसियत चिलमची बरदार और चिलमचियों से ज्यादा कुछ भी नहीं । यही कारण है कि बैंक में तीन – तीन वर्षों के लिये प्रतिनियुक्ति पर आने की अवधि में, जम कर माल डकारने के बाद वे इन चिलमचियों में अपने जूठे हाथ धोते हैं और कुल्ला करते हैं। इस दौरान कलईगर बड़ी तत्परता के साथ चिलमची बरदार की भूमिका में खड़ा हो उनका हाथ – मुँह धुलाने के लिए मुस्तैद खड़ा रहता है।
हर मुलम्ची की ख़्वाहिश होती थी कि वह चिलमची बने और चिलमची से भी दस कदम आगे बढ़कर चेयरमैन साहब का दुमची ( दोनों नितंबों के बीच की हड्डी )बने। दुमची बनने के फायदे ही फायदे थे। एक तरफ तो खुद दुम हिलाते रहने से मुक्ति मिलती, दूसरी तरफ होता यह कि अब कोई भी आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता था। दुमची का अपना अलग ही महत्व होता है। जिस बंदे की दुमची की पोजिशन में कुछ गड़बड़ हो जाये, वह बिस्तर पर निढाल पड़ जाता है।
उन्हीं दिनों हुआ यह कि कर्मचारियों के बीच एक नयी सूक्ति लोकप्रिय हो गयी — “ गडेरी लाल ‘वाह’ बना दुमची, क्या करेगी घुमची। ”
घुमची या घुंघची तंतर- मंतर के काम आती है। बहुत से लोगों का एक ही मत हो गया था कि अब कोई साधारण स्टाफ तो क्या , कोई तांत्रिक भी अपने तंतर – मंतर से गडेरी लाल ‘वाह’ जी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि वह चेयरमैन साहब का दुमची बन गया है।
एक कलईगर पुराने घाघ हैं जिनका नामकरण बैंक के कुछ कारिंदों ने एक जमाने में ‘ जगाती – सुलाती ‘ कर दिया था ( चूँकि वे उन दिनों यूनियन चलाते हुए उपरी तौर पर जहाँ एक तरफ कर्मचारियों को उच्च प्रबंधन के अफसरों के विरोध में जगाने का काम करते थे तो दूसरी तरफ भीतर – ही – भीतर उन अफसरों से मिले भी रहते थे।) इसी प्रकार के हथकंडे अपनाते हुए ‘जगाती – सुलाती ‘ जी बैंक के निरीक्षण विभाग के शीर्ष पद तक पहुँचने में सफल भी हुए । जाहिर है कि पहले उनकी दुकान संस्था के बिग – शॉपिंग मॉल में थी पर 60 बरस के होते ही मॉल वाली दुकान से इनका कब्जा संस्था द्वारा हटा दिया गया। अब पिछले कुछ वर्षों से ये महाशय डी. एस. बी. डिग्री कॉलेज की ओर जाने वाली सड़क के किनारे बने अपने एक कुटीर में अब भी अपनी कलई करने की ‘आउट – ऑफ – डेट ‘ मशीनें शो केस में सजाये बैठे रहते हैं। पहले तो अकल के अंधे थे परन्तु अब मोतियाबिंद के कारण आँख के अंधे भी हो गये हैं लेकिन चूँकि ये पुराने कलईगर ऱह चुके हैं, इसलिए उनके माध्यम से स्वयं पर चमकदार कलई करवाने का बंदोबस्त करने हेतु कुछ पात्र अब भी गाहे – बगाहे इनके पास पहुँचते रहते हैं। चूँकि ये महाशय स्वयं भी अच्छी तरह समझते हैं कि अब इन के द्वारा की गयी कलई से किसी पात्र का काम नहीं चलता , इसलिये ये अपने पास पहुंचने वाले पात्र को बिग – मॉल में बैठे किसी और कलईगर से खूब चमकवा देने की ‘सुपारी ’ ले लिया करते हैं। इस बैंक पर अब भी उनकी पकड़ है। यही वजह है कि औने – पौने रेटों पर कलई करवा देने का ‘बयाना’ ले लेने के बाद ये किसी भी तरह लग – पड़ कर अपने ‘क्लाइंट’ का काम करवा ले जाने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं।
उन दिनों की बात बताता हूँ, जब वे 60 बरस के नहीं हुए थे। उन दिनों मोहिन्द्रा नामक एक पात्र की कलई करते – करते उन्हें उस से दिल से प्यार हो गया था। इसलिए अब 60 बरस के होकर घर बैठ जाने के बाद भी ये इस प्रयास में लगे रहते हैं कि कहीं कभी मोहिन्द्रा की कलई न खुल जाए। पिछले दिनों हुआ यह कि मोहिन्द्रा नामक इस पात्र पर कलई चढ़ाने का काम बुक कर के जब वे बिग – मॉल में पहुंचे तो उन्हें सामने वाले हर कलईगर से सुनने को मिला, “ इस पात्र में तो कुत्ते का गू – ही – गू लगा हुआ है। आप ने ऐसे पात्र को चमकाने की बुकिंग कैसे ले ली ? ” इस पर उन्होंने खिसिया कर स्वयं पर ही हँसते हुए जवाब दिया, “अन्हरा के जूजि सुंघाबे , त कहे फूलेल नहके.” (मैथिली कहावत – अंधे को लिंग सुंघाया तो बोला , खुशबू आ रही है। )
मोहिन्द्रा नामक इस पात्र से समय – समय पर कई चढ़ावे स्वीकार कर, कभी उन्होंने स्वयं अपनी दक्ष कारीगरी से उस पर सोने का पानी कई बार चढ़ाया था। उन दिनों मोहिन्द्रा ने जिन गड्ढों में कभी – कभी डुबकी लगाना शुरू किया था , उन में गंदगी तो काफी होती थी पर ये साहब मोहिंद्रा पर लगी गंदगी को बड़ी सफाई से साफ कर दिया करते थे।
उस दिन अपने प्रयास में विफल ये साहब जब बैंक के प्रधान कार्यालय से निराशा में लिपटे लौट रहे थे तो संस्था के तल्लीताल कार्यालय में कार्यरत मोहिन्द्रा नामक उनका वह प्रिय पात्र नैनीताल के ताल में कूद गया।
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मोबाइल का युग अभी शुरु नहीं हुआ था । उसके बावजूद होता यह था कि बॉम्बे स्थित कार्यालय से इस बैंक में प्रतिनियुक्ति के रूप में भेजे जाने वाले चेयरमैन या जी. एम. के बारे में तरह – तरह की रोचक एवं ज्ञानवर्धक जानकरियाँ संस्था के साम्राज्य में इन अफसरों के चरण पड़ने से पहले ही फैलती हुई संस्था के कारिंदों तक पहुँच जातीं।
बैंक में कार्यभार ग्रहण करने के लिये आने वाला कौन चेयरमैन या जी.एम. सुबह नित्यक्रम के लिये लोटा ले कर जाता है या बाल्टी ले कर ? खाऊ है या सूफी है ? खाऊ है तो कितना बड़ा खाऊ है ? सिर्फ चारे से काम चला लेता है या फिर लक्कड़ – पत्थर सब हजम कर जाता है? हाथी का गू खाता है तो क्या चिड़िया का गू भी खा लेता है ? या फिर सिर्फ इस धारणा का समर्थक है कि गू खाओ तो हाथी का खाओ ? वेज है या नॉन वेज है ? नॉन वेज है तो चिड़ियों का गोश्त खाता है या जानवरों का भी खाता है ? जानवरों में नर का गोश्त पसंद करता है या मादा का ? मृत गोश्त का शौकीन है कि जिन्दा गोश्त का ? वगैरह – वगैरह …
हमने पहले ही कहा कि यह इस देश में मोबाइल फोन का युग शुरु होने से पहले के युग की बात चल रही है। हाँ, तब टेलीग्राम का युग खत्म नहीं हुआ था। टेलीग्राम से खबरें भेजने में होता यह था कि बैंक के नैनीताल में स्थित खबरचियों को कभी – कभी ये जानकारियाँ पूरी नहीं मिल पाती थीं। इसका कारण यह भी होता था कि टेलीग्राम में वे जिस कोड भाषा में लिखी गयी होतीं , उसे ‘डिकोड’ करने में कभी – कभी धुरंधरों से भी त्रुटि हो जाती। बाद में जब तक लोग वास्तविकता समझ पाते , उन्हें लगता कि वे ‘ मिस्टेक’ नहीं बल्कि ‘हिमालयन ब्लंडर’ कर चुके हैं।
सरदेसाई साहब के मामले में यही हुआ। “वे रंगीन मछलियों के शौकीन हैं” — का आशय लोगों की समझ में जब तक आया, तब तक तो वे कई रंगीन मछलियों का भक्षण कर अपना शौक पूरा कर चुके थे। लंबे – चौड़े, हृष्ट – पुष्ट मिस्टर सरदेसाई , रंगीन टी – शर्ट पहन कर, प्रायः कंधे पर काँटा लटकाये झील के किनारे – किनारे निकलते तो उन की बाँहों की मछलियाँ देख कई रंगीन मछलियाँ उन मछलियों से खेलने को आतुर हो उठतीं। सरदेसाई साहब दयालु प्रकृत्ति के थे। वे इन मछलियों और इन से जुड़े किसी भी प्राणी को कतई निराश नहीं करते थे।
सरदेसाई साहब के बारे में विस्तार से फिर कभी। बहरहाल कहना यह है कि इस से पहले जिस तरह की जानकारियों की बात हो रही थी, उन जानकारियों के जुटते ही कुछ वीर – बहादुर किस्म के लोग अविलम्ब रायबहादुर में तब्दील हो जाते और उन सामानों की अग्रिम व्यवस्था करने में जुट जाते जिनकी बदौलत आने वाले हूजूर के दरबार में जी हुज़ूरी करके, अपने लिये मुलायम गद्दी पाना सुनिश्चित किया जा सके।
यह तो बाद में पता चला कि बॉम्बे कार्यालय में ही कार्यरत ‘क्लाउड सीडिंग ’ के विशेषज्ञ कुछ वैज्ञानिक प्रवृति के लोग इस तरह की जानकारी से संतृप्त कृत्रिम बादलों का सृजन करने में एक्सपर्ट थे। वे ऐसे बादलों का सृजन करते और उन्हें बरसने के लिए देवभूमि की ओर भेज दिया करते थे। (ये वे लोग हुआ करते थे जो स्वयं प्रतिनियुक्ति पर इस वित्तीय संस्था में आने का जुगाड़ लगाने में चूक गये होते थे । वे यहाँ प्रतिनियुक्ति पाकर आसानी से बिना किसी रिस्क के भरपूर मात्रा में मिल जाने वाला चारा खाने का जुगाड़ लगा चुकने के बाद भी अपने लक्ष्य पर निशाना लगाने में चूक जाने के कारण स्वयं को अत्यंत चुका हुआ महसूस कर रहे होते थे । )
प्रायः होता यह कि बॉम्बे से रवाना हुए इन बादलों को झपट लेने के लिये बैंक के दिल्ली क्षेत्र के कार्यालयों में कार्यरत स्टाफ में से ‘पानी में आग ‘ लगाने की क्षमता रखने वाले ‘जादूगर’ किस्म के कुछ शातिर लोग दिल्ली राज्य के बार्डर पर ही इन बादलों को घेर लेते और हाँककर अपने साथ ले जाते। हर चीज और हर बंदे को हांक लेने में निपुण दिल्ली में बैठे ये जुगाड़ू पपीहे (स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा किए बिना ही) इन बादलों को दिल्ली में ही बरसा लेने और स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा किए बिना ही, इनका जल पी लेने की कला में निपुण (प्रवीण )होते थे। होता यह कि जैसे ही ये कृत्रिम बादल दिल्ली तक पहुँचते , ये लोग गुब्बारे या फिर किसी ड्रोन की मदद से इन बादलों पर सिल्वर आयोडाइड और सूखी बर्फ आदि रसायनों का छिड़काव कर उनके भारी होने का इंतजार करते। (कब कैसी जरूरत पड़ जाये , सोचकर मौसम को अपने हिसाब से बदल में माहिर ये लोग अपने झोले में हर समय नमक, यूरिया , अमोनियम नाइट्रेट , सूखी बर्फ और कैल्शियम क्लोराइड आदि का स्टॉक रखते थे।) सिल्वर आयोडाइड और सूखी बर्फ के छिड़काव के फलस्वरूप भारी हो चुके ये बादल बेचारे मजबूर हो कर दिल्ली के राजेन्द्रा प्लेस , लाजपतनगर और पंचकुइया रोड इलाकों में ही बरस जाते थे । अब दिल्ली के ये पपीहे(बंदे) आसमान की ओर चोंच खोलकर जलपान का आनंद लेते थे। इसके बाद चोंच की पकड़ से बाहर गिरे जल को बटोरकर दिल्ली से देवांचल तक बिछी अंडरग्राउंड पाईप लाइनों से ‘प्यासों’ तक जल भिजवाने की और यह जतलाने की कवायद शुरू हो जाती कि हम दिल्ली वालों ने बाजी मार ली है।
अब देवभूमि में कार्यरत जिस ‘प्यासे ’ बंदे का कनेक्शन किसी पाईप लाईन द्वारा दिल्ली से जुड़ा होता , उसे नए चेयरमैन या जी. एम. के बारे में इन जानकारियों की सप्लाई कर, उन लोगों की प्यास बुझाई जाती। सप्लाई पहुँचने से/ पा कर तृप्त (खुश) यह बंदा यहाँ –वहाँ कूदता फिरता। बतलाता फिरता – आने वाले नए जी. एम. ऐसे हैं, वैसे हैं। यह सब बताते हुए वह उनके इतिहास – भूगोल के बारे में कुछ बातें अपनी तरफ से भी जोड़ देता । थोड़ी देर बाद जब वह देखता कि कोई अन्य बंदा भी अपने कंधे पर इन जानकारियों का कलश उठाये मोहिनी मुद्रा में इठलाता हुआ घूम – घूम कर देवों और दानवों दोनों को ही ‘अमृत’ बाँट रहा है तो वह अपने इस रकीब को देखकर मायूस हो उठता। वह सोचता कि कितने सारे खर्चे कर के तो मैंने दिल्ली से पाईप लाईन का कनेक्शन लिया था, जिसे मैं वैध कनेक्शन समझ रहा था पर अवैध कनेक्शन ले लेने में सफल हो चुका यह बंदा न जाने कहाँ से पैदा हो गया। मुझे अवश्य ही कोई उचित मौका देख कर इस बंदे की पाईप लाईन ध्वस्त करनी ही पड़ेगी।
स्वयं को बी. बी. सी. के किसी संवाददाता से कम न समझने वाले कुछ स्वयंभू ख़िदमतगार देवांचल के विभिन्न स्थानों पर कार्यरत अपने कुछ खासमखास लोगों को बेसिक फोन घनघना कर नए ज्ञान से समृद्ध करने में जुट जाते।
नैनीताल से विभिन्न शाखा कार्यालयों को फोन खड़कने लगते और ‘ ट्रंक कॉल’ करने वाला बंदा स्वयं को संस्था रूपी ‘ ट्री ‘ (वृक्ष) का ‘ ट्रंक’ (तना)समझने की गलतफहमी पालने के साथ – साथ यह गलतफहमी भी पाल लेता कि इन सूचनाओं का पिष्ट – पेषण करने के बाद इन्हें बैंक के विभिन्न शाखा कार्यालयों को प्रेषण कर के, शाखा कार्यालयों में कार्यरत बन्दों का पोषण करने के कार्य में जुट जाना ही उसका परम कर्तव्य है। मानों उसे इसी काम की तनख्वाह मिलती हो।
कभी – कभी ऐसा भी होता कि दिल्ली वाले उपरोक्त ‘वैज्ञानिकों ’ का रडार बॉम्बे से आ रहे बादलों के सिग्नलों को पकड़ पाने से चूक जाता तो ये बादल उड़ते हुए सीधे देवभूमि पहुँच जाते। वैसे इन बादलों के रास्ते में पड़ने वाले, मीरगंज व बिलासपुर के आस – पास के गांवों में स्थित शाखा कार्यालयों में कार्यरत कुछ वैज्ञानिक सोच वाले बंदे (जो गाँव से होकर गुजरने वाली बिजली की हाई वोल्टेज लाईन में भी कँटिया डालकर अपनी मढ़ैया रोशन कर लेने के अभ्यस्त थे ) इन बादलों पर भी कँटिया डालकर बिजली , पानी , ओले जैसी सारी चीजें झपट लेने का प्लान बनाते किंतु रडार खरीदने का सारा बजट दारु पीने में खर्च हो जाने की वजह से, उन बन्दों को इन बादलों के उस तरफ से गुजरने के बारे में जब तक पता चलता , तब तक ये बादल उनके इलाकों के आसमान से होकर गुजरने के बाद नैनीताल पहुँच चुके होते थे।
इस बैंक में नियुक्ति पर आने से कुछ साल पहले नये जी. एम. साहब अपने ‘पैरेंट – ऑर्गनाइजेशन’ के थाईलैंड स्थित कार्यालय की भी शोभा बढ़ा चुके थे। देवांचल की धरती पर उनके चरण पड़ने से पहले ही एक उल्लेखनीय घटना हुई। अरब सागर के तट पर स्थित बॉम्बे के उन के कार्यालय के प्रांगण से उठे बादलों के साथ उड़ती हुई कुछ खबरों की रिमझिम बारिस देवांचल में जगह – जगह पर हुई थी। वे खबरें इस प्रकार थीं :
यह बंदा दिखने में चिंपांजी की तरह गहरा काला है मगर यह महज एक सफ़ेद हाथी है।
लीद बहुत करता है।
अपनी थाईलैंड पोस्टिंग के दौरान इसने वहाँ अत्यधिक चारे का भक्षण किया जिसके बाद ही लोगों को यह भेद पता चल सका कि इसके पेट में कुआँ है।
मसाज का विशेष शौकीन है।
इसकी थाईलैंड-पोस्टिंग से इसके ऑर्गनाइजेशन को हुए भारी नुकसान की भरपाई करने के लिए ऑर्गनाइजेशन के पास जब कोई भी चारा नहीं बचा तो ऑर्गनाइजेशन ने इसके द्वारा भारी मात्रा में की गयी लीद को इकट्ठा किया। अन्य सामग्रियों के साथ – साथ इस के द्वारा भकोसे गए कॉफी के कच्चे फलों के पाचन से इसकी लीद में बाहर निकले बीजों को अपने खास प्रशिक्षित ट्रेनरों से तलाश करवाया। प्रति 33 किलो बीजों से निकलने वाले मात्र 1 किलो की दर से प्राप्त हो सके उन बीजों को धोया , सुखाया। फिर आइवरी कॉफी बना बना कर बेची, तब कहीं जा कर उस घाटे की भरपाई हुई। इस कॉफी में कड़ुवापन नहीं होता। कुछ भी हजम कर लेने की क्षमता वाले इस हाथी का हाजमा इतना दुरुस्त है कि पाचन क्रिया के दौरान इसने अपनी बॉडी में उत्पन्न होने वाले एंजाइमों से कॉफी के बीजों के प्रोटीन को तक तोड़ दिया और उनका कडुआपन हजम कर गया। अब उन बीजों से बनी कॉफी कड़ुवी के बजाय मीठी होने लगी है जिस से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह अपने भीतर कितनी कड़ुवाहट सँजोये हुए है।
प्रचारित की गयी ये बातें कितनी सच होतीं या झूठ, यह तो नहीं पता। हाँ, ऐसा जरूर होता आया था कि बैंक में चेयरमैन और जी.एम. के पद पर बॉम्बे से तीन वर्ष हेतु प्रतिनियुक्ति पर आने वाले उच्चाधिकारी जब यहाँ आने के लिए बॉम्बे के छत्रपति शिवाजी एयरपोर्ट से फ्लाइट में बैठते थे तो वे स्वयं को पुष्पक विमान में बैठे हुए देवराज इंद्र से कम नहीं समझते थे। नील गगन में बादलों के ऊपर मँडराते – उतराते उड़नखटोले में बैठे हुए वे कुबेर , रंभा , उर्वशी आदि के ख्यालों में डूब जाते । पंतनगर एयरपोर्ट पहुँचने पर जब उन्हें उन के स्वागत में उन के नाम की तख्ती लिये खड़ा हुआ गोरा – चिट्टा गडेरी लाल ‘वाह ‘ दिखलाई पड़ता तो सूँड की बजाय पकौड़े जैसी नाक वाले इस सफ़ेद हाथी को देख कर वे एक बार को चकरा जाते और उनके मन में यह विचार आता कि क्या इस बैंक के पास सफेद हाथियों का टोटा पड़ गया है जो स्वागती के रूप में यह नकटा हाथी भेज दिया है।
उस क्षण उन्हें इस बात का तनिक भी आभास नहीं होता था कि यह हाथी दरसल इच्छाधारी साँप है जो हर नये चेयरमैन और जी.एम. की आस्तीन में बड़ी सफाई से घुस जाता है। उसके बाद समय – समय पर अपनी सुविधानुसार विविध रूप व रंग भी बदल लेता है। कभी दो मुंहा साँप , कभी साँप की मौसी ,कभी गिरगिट , कभी कुत्ता , कभी लोमड़ी , कभी उड़नलोमड़ी ।
अपने कलेजे पर पत्थर रख कर वे ज्यों ही स्वागती गडेरी लाल ‘वाह’ के निकट पहुँचते , त्यों ही गडेरी लाल ‘वाह ‘ उक्त तख्ती को एक तरफ फेंक कर अपने पास में ही रखा हुआ फूलों का बुके और पूजा का थाल अपने हाथों में उठा लेता। पलक झपकते ही पुरंदर ( इन्द्र ) को बुके थमाने और रोली – पिंठ्या लगाने के साथ ही जब वह शंख व घंटी बजाना शुरू करता तो पुरंदर के साथ – साथ एयरपोर्ट पर मौजूद हर व्यक्ति ठिठक कर ‘स्टैच्यू’ की मुद्रा में खड़ा हो जाता। तत्पश्चात जब गडेरी लाल ‘ वाह ‘ दंडवत झुक कर इस नये ‘इन्द्र’ के जूतों को अपने दोनों हाथों से स्पर्श करता तो ‘इन्द्र ’ महाशय को एकाएक उस में ‘ऐरावत ’ की झलक दिखलाई देने लगती। वे शिद्दत के साथ महसूस करने लगते कि वे देवभूमि के पंतनगर में नहीं, अपितु स्वर्ग में मौजूद अपनी राजधानी अमरावती के नन्दन – कानन में पहुँच गए हैं। इसके साथ ही इंद्र महाशय यह भी सोचने लगते कि यदि इस संस्था में ऐसे ही सफ़ेद हाथी हैं तब तो यहाँ मेरा कार्यकाल बहुत बढ़िया बीतेगा। ऐसे ऐतिहासिक क्षणों में ‘इंद्र ’ महाशय यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि बैंक के प्रधान कार्यालय के परिसर में पहुँचने के बाद उन की हैसियत मात्र एक साधारण महावत जितनी रह जायेगी और जाने कैसे – कैसे हाथी उन्हें साधने पड़ेंगे। अपने को महामात्र (संस्कृत का) या पिलवान (हिन्दी का ) समझने वाले ये अफसर सोचते थे कि वे बॉम्बे से मिली ताकतों का अंकुश के रूप में प्रयोग कर के, ऐसे हाथियों को अपने बस में कर लेंगे और स्वयं को सफल ‘आंकुशिक’ साबित करने में कोई कोर – कसर नहीं छोड़ेंगे लेकिन होता कुछ और ही था। महावत नया – नया होता था। उसे न तो हाथियों के स्वभाव का पता होता था न व्यवहार का । बाद – बाद में उसे लगने लगता कि बेहतर तो यह होता कि मुझ से पहले प्रतिनियुक्त ‘महावत ‘ महोदय यदि कुछ दिन यहाँ रुक कर के इस विषय में मेरा मार्गदर्शन कर गये होते तो मुझे भविष्य में इन हाथियों को साधने में सफलता मिल जाती।
पंतनगर एयरपोर्ट से बाहर निकलने का दृश्य अद्भुत होता । सफेद हाथी अब तक कुलांचे भरते हुए स्वर्ण – मृग में बदल चुका होता और उसे अपना पालतू पशु समझने की भूल करते हुए , उस के सम्मोहन के पाश में बंधा उसके पीछे चल रहा बॉम्बे से अभी – अभी आया हुआ यह बंदा एक ऐसे धनुर्धर में बदल चुका होता जिसने अपने तरकश में रखे तीरों को खुद ही भोंथरा कर लिया है। इस मृग के पीछे चल रहे इस नये – नये धनुर्धर को इस बात का जरा-सा भी आभास नहीं होता था कि देवांचल के अरण्य में स्थित बैंक के मुख्यालय की ओर ले जा रहा यह मृग वास्तव में एक कपट – मृग है। बैंक की ओर से भेजा गया एच.आर.एम. डिपार्टमेन्ट का यह बंदा (जिसे वे पराक्रमी वीर समझ रहे हैं), भविष्य में संस्था में समस्या बन कर आने वाले राक्षसी प्रवृत्ति के स्टाफ से निबटने के लिये इन्द्र की ओर से युद्ध तो करेगा पर इसके लिये योद्धा पुरंजय की तरह पहली शर्त यह रख देगा कि मैं इस इन्द्र को अपना वाहन बनाकर उस पर सवारी गाँठने के उपरांत ही युद्ध में उतरूँगा । इस के बाद यह पुरंजय उन्हें बैल बनाकर उनके ककुद (कंधे का शिखर , डील ) पर बैठ कर उसी प्रकार सवारी करेगा, जैसे पुरन्दर ने इंद्र को बैल बना कर उस पर सवारी की थी । युद्ध के बाद पुरंजय तो बैल रूपी इन्द्र से उतर गया था पर पर्वत बैंक का यह पुरंजय उन्हें तब तक बैल बनाकर रखेगा जब तक वे इस बैंक में प्रतिनियुक्ति पर रहेंगे।
कभी – कभी तो ऐसा वाकया भी हुआ कि बंबई से आया नया – नया महावत गडेरी लाल ‘वाह’ नाम के इस सफ़ेद हाथी की गोद में ही बैठ गया। ऐसे महावत को यह सफ़ेद हाथी, पर्वत बैंक के नैनीताल स्थित प्रधान कार्यालय से लगभग एक किलोमीटर दूर स्थित नैनीताल शहर के चिड़ियाघर की सैर करवाने ले जाता और सफ़ेद भालू, बाघ या चिम्पांजी के साथ उस की फोटो खिंचवाता जो कि अगले दिन के स्थानीय अखबार में छपती। नीचे से कैप्शन लगा होता —“ पर्वत बैंक के चेयरमैन / जी. एम. ने सफ़ेद भालू / चिम्पांजी को गोद लिया। ” अखबार के पाठकगण एक सफ़ेद हाथी की गोद में महावत और महावत द्वारा ‘गोद ’ लिये जाते हुए सफ़ेद भालू को देख कर कार्टूनों का सा आनंद लेते।
एक बार ऐसा वाकया भी हुआ कि चिड़ियाघर के एक चिम्पांजी ने सफ़ेद हाथी की गोद में बैठे बंदे को भी चिम्पांजी ही समझा और उस से ‘प्रणय निवेदन’ भी कर डाला। यह बंदा हाल ही में आया हुआ बैंक का नया जी. एम. था। चिड़ियाघर के चिम्पांजी ने उसे अपनी जात – बिरादरी का समझ लिया था तो उस की इस में में कोई गलती नहीं थी। अपने जैसे रूप- रंग , कद- काठी और ‘पॉश्चर’ (posture ) वाले प्राणी को देख कर ऐसी भूल हो जाना स्वाभाविक ही था।
बैंक के कई कर्तव्यनिष्ठ अफसरों ने नये आये हुए इन ‘चिम्पांजी साहब ’ को सलाह देते हुए अपने कर्तव्य का निर्वाह किया कि वे इस सफ़ेद हाथी गडेरी लाल ‘वाह’ के साथ चिड़ियाघर जा कर, वहाँ के चिम्पांजी के साथ फोटो खिंचवाने के चक्कर में न पड़ा करें । यह ऐसा बंदा है, जो अपने मतलब के लिए गधे को भी बाप बना सकता है। यह आपको चिड़ियाघर के चक्कर लगवाकर उल्लू बना रहा है। आप इससे ट्यूशन पढ़ने के चक्कर में न पड़ें। आप को लगभग तीन साल तक यहाँ रहकर इस बैंक को चलाना है। भविष्य में जब तरह – तरह की समस्याएँ आपके सामने आयेंगी, उस समय ये बंदा आपके किसी काम नहीं आने वाला। इसका ढर्रा तो “ लगनै बखत हगण ” वाला है। (विवाह मंडप पर लगन के समय शौच के लिए चल देना। )
यह भी समझाया कि उल्टे ये भी हो सकता है कि आप इसकी सलाहों में पड़कर कभी किसी चक्कर में न उलझ जायें। इसका हिसाब – किताब तो कुछ इस प्रकार का है, “ दैकी ठेकी पाल भीतेर , नमस्कार वाल भीतेर ” ( व्यापार व्यवहार के और , और दगड़ व दिखावा के और।) इसलिये बेहतर यह रहेगा कि आप बैंक के वित्तीय और एडमिनिस्ट्रेशन से संबन्धित कामों की ओर भी थोड़ा ध्यान दें परन्तु ‘ चिम्पांजी साहब’ ने गडेरी लाल ‘ वाह ‘ द्वारा एक मात्र उनके लिए खोले गए कोचिंग सेंटर की क्लासों में ट्यूशन पढ़ना नहीं छोड़ा क्योंकि उन्हें तो इस सफ़ेद हाथी की गोद में बैठ कर चिड़ियाघर के चिम्पांजी को मूँगफलियाँ खिलाने का शौक लग चुका था।
बॉम्बे स्थित अपनी मातृ संस्था (Mother Institution ) के कार्यालय में तो एक बहुत बड़े हाल में 4′ X 4’ ( चार फिट गुणा चार फिट ) के दड़बेनुमा केबिन में बैठे हुए वे स्वयं को टांगों में धगना बांधे गये किसी मुर्गे की स्थिति पाते थे जब कि सघन वनों से आच्छादित इस पर्वत- प्रदेश के इस बैंक में चेयरमैन या जी.एम. के पद पर प्रतिनियुक्ति पर पहुँच कर वे स्वयं को किसी जंगली मुर्गे की मानिंद स्वच्छंद महसूस करने का अनुभव करने लगते थे। बॉम्बे में उनके जैसे 20 लोगों की आवाज़ सुनने के लिये एक चपरासी हुआ करता था (जो पानी का गिलास भरकर लाने में भी कम -से – कम 20 मिनट लेता था। तब तक प्यास मर जाया करती थी ) जबकि यहाँ चेयरमैन या जी. एम. बनने के बाद आलम यह था कि उनके मातहत हैड ऑफिस के 7 व विभिन्न शाखाओं के लगभग 70 चपरासी कंधे पर ठंडे पानी से भरी सुराही लिये खड़े रहते थे । कई यूनियन नेता मौका मिलते ही उनके आगे पानी भरते थे और 70 शाखा कार्यालयों के सत्तर नहीं तो 60 मैनेजर भी उनकी चिलम भरने को आतुर रहते थे।
बाकी बचे 10 ब्रांच मैनेजरों को वे पूरा अफसर नहीं मानते थे चूँकि उनके सम्बन्ध में गडेरी लाल ‘वाह ‘ ( जिसे वित्तीय मामलों की ए.बी. सी.डी. भी नहीं मालूम थी ) द्वारा ट्यूशन पढ़ाये जाने के दौरान उन्हें पढ़ाया गया था कि ये दसों मैनेजर “आधा तीतर आधा बटेर हैं। ” बहरहाल गडेरी लाल ‘वाह ‘ के काले जादू से बंधे नये जी. एम. ‘चिंपांजी साहब’ इन दिनों सातवें आसमान पर थे जहां से नीचे उतरने को वे किसी भी तरह तैयार नहीं थे। कुछ लोग तो यह भी कहते पाये गये कि उन्हें सुरक्षित नीचे उतारने के लिए लगाई गयी सीढ़ियाँ भी उन्होंने लात मारकर परे धकेल दी थीं ।
बहरहाल सच्चाई यही थी कि चिम्पांजी साहब ने किसी भी शुभचिंतक की नहीं सुनी । वे गडेरी लाल ‘वाह’ की स्वामी भक्ति से अत्यंत प्रसन्न चल रहे थे । गडेरी लाल ‘वाह’ भी मौके – बेमौके उन से ऐसा कहने से नहीं चूकता , “ साहब, मैं तो आप का हनुमान हूँ। ” वह पता नहीं कहाँ से नोट कर के लाई हुई ये पंक्तियाँ प्रायः चिम्पांजी साहब के सामने दुहराता , “राम जैसा साहब आए तो, हनुमान जैसा नफ़र पैदा होये। ” ( वैसे इस बैंक में, इस से पहले भी जितने चेयरमैन और जी. एम. ड्यूटी बजाने आये थे , उन के सामने भी वह यही डायलॉग दुहरा कर मस्का लगाता आया था। )
ऐसे ही कुछ समय बीता पर एक दिन तो गज़ब ही हो गया। हुआ यह कि जैसे ही गडेरी लाल ‘वाह’ ने चिम्पांजी साहब के केबिन में प्रवेश किया तो पाया कि वे बहुत खीझे हुए बैठे थे।
गडेरी लाल ‘वाह’ पर नजर पड़ते ही उन्होंने उसे झाड़ना शुरु कर दिया, “किसी को मस्का लगाने की भी हद होती है मिस्टर गडेरी लाल ! यह बतलाइये कि मेरी पर्सनैलिटी में आप को भगवान रामचंद्र जी जैसा क्या दिखलाई पड़ता है ? क्या आप के इस शहर की रामलीला कमेटी मुझे रामलीला में राम का रोल दे सकती है ?. ……. मैं जानता हूँ कि कभी नहीं देगी। मेरे कद – काठी के हिसाब से अगर रोल देगी तो अहिरावण या कुंभकरण का रोल देगी। और एक आप हैं कि मुझे रोजाना चने के झाड़ पर चढ़ाने में लगे रहते हैं……….राम जैसा साहब आए तो, हनुमान जैसा नफ़र पैदा होये। बहुत हो गया यह बेवकूफ बनाना। ”
फिर थोड़ा रुककर बोले,”अच्छा एक बात बताइये कि आपने कभी मुझे यह गुप्त रिपोर्ट दी कि बैंक के कर्मचारी आपसी बातचीत के दौरान मेरे लिये ‘चिम्पांजी – साहब ’ उपाधि का प्रयोग करते हैं? आप से अच्छा तो चन्दन गोस्वामी नाम का ड्राईवर है , जिसने कम – से – कम यह कड़ुवी सच्चाई तो मेरे कानों तक पहुंचायी। ”
यह सुनकर मिस्टर गडेरी लाल ‘वाह’ को एक साथ दो झटके लगे। (पहला) यह कि चन्दन गोस्वामी नामक चालाक चालक जो अब तक जी.एम. की गाड़ी चलाता आया है, अब जी.एम. को भी चलाने के चक्कर में है और मुझे खबर तक नहीं हुई। (दूसरा ) यह कि मेरे पास ट्रांसमीटर की तरह काम करने वाले हाथी जैसे बड़े – बड़े कान हैं जो नैनीताल से 20 किलोमीटर की दूरी तक भी किसी स्थान पर सुई गिरने की आवाज़ तक सुन लेते हैं; इसके बावजूद मेरे कानों को स्टाफ के सदस्यों द्वारा जी. एम. को चिम्पांजी कहे जाने संबंधी फुसफुसाहट क्यों नहीं सुनायी दी । कहीं चन्दन गोस्वामी नामक यह ड्राईवर इस तरह की मनगढ़ंत बातों से जी.एम. के कान भर कर मेरा पत्ता काटने के चक्कर में तो नहीं ? इस तरह तो ‘कान भरने का’ मेरा धंधा ही चौपट हो जायेगा।
उसके दिमाग में एक आइडिया ने क्लिक किया और उस ने तुरंत ही उसे क्रियान्वित करते हुए जी. एम. के कानों के पास अपना मुंह ले जा कर कहना शुरू किया, “ गुस्ताखी माफ हो , हुजूर! बतलाना तो चाहता था पर हिम्मत नहीं जुटा सका……… पर हुजूर लगता है चन्दन ड्राईवर ने भले ही एक बात आपको बतला दी है लेकिन फिर भी उसने एक और बात आप से छुपा रखी है.”
“एक और बात ,….. कौन सी बात ?”
“ हुजूर ,कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि इस चिम्पांजी जी. एम. की बुद्धि इसके घुटनों में है |”
गडेरी लाल के मुखारविंद से यह बात सुनते ही जी. एम. साहब का चेहरा गुस्से से तमतमा गया। उन्होंने जोरों से अपने दाहिने हाथ का मुक्का टेबल पर दे मारा। गडेरी लाल ने देखा कि ‘चिम्पांजी साहब’ की आँखों में आग धधकने लगी थीं ।
……… गडेरी लाल ‘वाह ‘ का तीर निशाने पर लग चुका था.
“ कौन हैं ऐसे दुष्ट ? ऐसा कहने वालों के ‘ऑफिसियल वर्क ‘ का इंस्पेक्शन आज ही शुरु करवाओ और उनके उस ‘वर्क ‘ में जबरदस्ती कुछ कमियाँ ढुँढवाने के काम में अपने किसी ‘खास’आदमी को लगवाओ। उसके बाद उन्हें ‘सो कॉज नोटिस’ दे कर चार्जशीट थमाओ ताकि ऐसे गुस्ताखों के वेतन से एक -एक , दो- दो इंक्रीमेंट कम करने का ‘ईनाम’ उन्हें दिया जा सके । ”
गडेरी लाल ‘ वाह ‘ ने आग लगा तो थी पर उस आग से तेजी के साथ उठने लगी इन भयंकर तेज लपटों का दृश्य देखने के लिये जैसे वह स्वयं भी पहले से तैयार नहीं था। साहब एकाएक इतने ज्यादा गरम हो जायेंगे, इस बात की तो उसने कल्पना ही नहीं की थी।
गडेरी लाल ‘वाह’ को एकाएक कुछ नहीं सूझा कि किस बंदे का नाम ले । किसी – न – किसी का नाम तो लेना ही पड़ेगा। किंकर्त्तव्य विमूढ़ – सा वह दो मिनट तक मौन खड़ा रहा, फिर धीरे से बोला (क्योंकि उसे कुछ तो बोलना ही था ) , “ एक तो गणपत नाम का लड़का है , सर ! जुम्मा – जुम्मा चार रोज की नौकरी हुई है उसकी, पर अपने आप को पता नहीं क्या समझता है। कभी प्रणाम तक ढंग से नहीं करता…..क्रेडिट सेक्शन में बैठता है। ”
“कितने साल की सर्विस हो गयी है उसकी ?”
“जी , महज 6 महीने की। ”
“ऐसा करो , उसका ट्रांसफर यहाँ से ढाई – तीन सौ किलोमीटर दूर , भारत की चीन से लगने वाली सीमा पर मौजूद कस्बे धारचूला में स्थित बैंक – ब्रांच के लिये करने के आर्डर तुरंत तैयार करवा दो। ……. और ऑर्डर में लिख देना कि आज शाम को ही वहाँ जाने हेतु कार्यमुक्त किया जाना है। ”
” कहाँ , …… कहाँ धारचूला …….! ”
गडेरी लाल ‘ वाह ‘ ने बहुत दिनों से अपना शौक पूरा नहीं किया था। अपना ‘शौक ’ पूरा करने के लिए बहुत दिनों से वह ऐसे ही किसी अवसर और ऐसे ही किसी आसान ‘शिकार’ की तलाश में था। आज गणपत की बलि देकर वह अपना यह शौक पूरा करने में सफल हो गया था।
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